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Monday, May 14, 2012

बचपन पर कालिख: बाल श्रम

*छोटू: उम्र-8 साल; पढाई-नहीं; काम-मोहन शेठ के यहाँ नौकर; क्यों-कमाई 
*मोंटी: उम्र-9 साल; पढाई- छोड दी; काम-कारीगर; क्यों - माँ ने भेजा 
*सपना : उम्र-9 साल; पढाई- नहीं ; काम-घरेलु नौकर ; क्यों - माँ की जगह काम पर  
*सोनू:  उम्र-7 साल; पढाई- नहीं; काम-नाके पर भीख मांगना ; क्यों - बदले एक वक़्त का खाना  
*सन्नी:  उम्र-11 साल; पढाई नहीं; काम-होटल में बर्तन साफ़ करना; क्यों-घर में अकेला कमाने वाला 

हम नाम लेते जायेंगे और सूचि बढती जाएगी। ये  छोटे कंधे  जीवन और जिम्मेदारियों का कितना बोझ सहन कर सकते  हैं  और इनका मासूम बचपन कब तक हालातों की भेट चढ़ता रहेगा! आज जिन बच्चो के हाथो में खिलौनों की जगह चाय-पानी के ग्लास, झूठे बर्तन और बारूद हैं...आखिर  इन  सबके  पीछे दोषी कौन हैं ! पहले जानते हैं एक छोटी सी कहानी-
8 साल का छोटू, अपने  परिवार का अकेला बेटा... कुछ समय  पहले उसका भी एक अच्छा-बड़ा परिवार था। माँ-बाप  मजदूरी  करते थे, 2 बड़ी बहने थी, 1-1 साल बड़ी और  घर में  दादी  भी थी। एक दिन वहाँ एक हादसा हो गया जहां  उसके माता-पिता मजदूरी  करते थे, पिता की मौत हो गई और माँ बिस्तर पर पहुच  गई। दो में से एक लड़की को कोई भगा ले गया। ऐसे में माँ, बहन , और  बूढी दादी  की ज़िम्मेदारी  अकेले छोटू पर आ  गई  और वो मोहन  शेठ  के  यहाँ  काम पर लग गया।

बचपन, जीवन का सबसे अनमोल समय। बारिश की पहली बूँद-सा, मखमली पंखुरियों-सा कोमल और  निरागस होता हैं बचपन। सीखने की सही  उम्र  भी यही होती हैं। वो उस कच्ची मिटटी के समान हैं, जिसे  कुम्हार मनचाहा आकर देता हैं। परिवार और समाज के  संस्कार और सभ्यता ही व्यक्ति का निर्माण करते हैं, यानी की, उसके  व्यक्तित्व को आकर देते हैं। ऐसे में  हमारे समाज का  निचला तबका, जो पेट की आग को बुझाने के लिए दिन-रात घिसता रहता हैं। इस समाज के बच्चे परिवार के संघर्ष में उनके  साथ जुड़  जाते हैं... या जोड़ लिए जाते हैं। गरीबी के दलदल  में  फसे देश के हजारो-लाखो परिवारों की यही कहानी हैं। इन  परिवारों  में 5 साल के छोटे बच्चे से लेकर 60 साल  के  बूढ़े  तक सभी काम पर जाते हैं। लेकिन  काम  कर रहे ये बच्चे, कितना कुछ खो देते हैं, इस  बात पर किसी  का ध्यान  नहीं जाता...ख़ास कर उनके  खुद के  परिवारजनों का...कारण तो कई होते हैं: कमाई, घर की ज़िम्मेदारी, रहने के लिए छ्त मिलना, आदि.. .पर इन सभी को पूरा करते-करते मिटता तो बचपन ही हैं। 
हम अगर अपने आसपास ही नज़र दौड़ाएंगे तो हमें कई नन्हे हाथ होटलों, कैंटीन, और ढाबों पर चाय पानी पिलाते, या बर्तन  मांजते मिल जायेंगे। देश के महत्वपूर्ण छोटे उद्योगों में शामिल कांच, बीड़ी, और पटाखा फेक्टरियो में  बड़ी संख्या में बाल मजदूर पाए जाते हैं। ऐसे सभी बच्चो की जिंदगियां इन कारखानों से निकलने  वाले धूए  और हानिकारक तत्वों के कारण काली पड़  रही हैं।
भारत सरकार ने इस बुराई को मिटाने के लिए वर्ष 1986 में बाल श्रम अधिनियम बनाया था, जिसके अंतर्गत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चो को काम पर रखना पूर्णतः वर्जित हैं। इस गंभीर मुद्दे की विडम्बना यह हैं की, परिवारजनों द्वारा नियोजित बच्चे बाल श्रमिक नहीं कहलाते। 2001 की जनगणना के अनुसार देश भर में  12666377 बच्चे कार्यशील पाए गए।

पटाखा फेक्टरियो में जहां बारूद फटने और कारीगरों के हाथ-पाँव जलने का डर लगा रहता हैं वही बीडी  कारखानों  में काम कर रहे लोगो को सांस की तकलीफ होने का खतरा होता हैं...उत्तर प्रदेश के  फिरोजाबाद  में चूडिया बनाने का काम पारिवारिक परंपरा की तरह हैं। लेकिन कांच की भट्टी की तेज़ रौशनी और अधिक तापमान में लगातार करने के कारण आखों की रोशनी हमेशा के लिए जा सकती हैं। इतना खतरा  होने के बावजूद बच्चे इन कारखानों में आज भी काम कर रहे हैं...सिर्फ चंद ज़िम्मेदारियो के लिए।
आकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश की कुल कामकाजी जनसँख्या  का 6.51 प्रतिशत हिस्सा 14 से कम आयु के  बच्चे हैं। प्रदेश सरकार की माने तो बाल श्रम प्रथा की समाप्ति तथा बाल श्रमिको का पुनर्वास, श्रम विभाग के  प्राथमिकता के विषयो में सम्मिलित हैं।10 अक्टोबर 2006 को केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंधित उपजिविकाओ  की सूचि में होटल, ढाबों, रेस्टोरेंट, चाय की दुकानों, तथा घरेलु कार्यो आदि में बाल श्रमिको का नियोजन  प्रतिबंधित किया गया था। राज्य के चुनिन्दा जिलो में बाल श्रमिको के पुनर्निवास के लिए भारत सरकार "राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना " क्रियान्वित कर रही हैं। इस परियोजना के अंतर्गत चुने गए जिलो में बाल श्रमिको का सर्वेक्षण कर उन्हें खतरनाक किस्म के व्यवसायों/प्रक्रियाओं से विमुक्त कराकर विशेष विद्यालयों में भर्ती किया जाता हैं।  इन विद्यालयों में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त रोजगारोन्मुख प्रशिक्षण की भी व्यवस्था अपेक्षित हैं, तथा दर्ज बच्चो को सौ रुपये मासिक छात्रवृत्ति, पाठ्य पुस्तके, युनिफोर्म, तथा माध्यान्ह भोजन दिए जाने के  अतिरिक्त नियमित स्वास्थ्य प्रशिक्षण का प्रावधान हैं।
लेकिन सरकारी आकडे और योजनायें एक तरफ और सच्चाई एक तरफ होती हैं। बस-टैम्पो में कन्डक्टरी  करता छुटकु हो या, घर में कमला बाई की जगह काम पर आई उसकी बेटी पिंकी हो...परिवार को अपना छोटा  किन्तु महत्वपूर्ण योगदान देते ये बच्चे हमारे आसपास ही हैं। 
इनमे भी सबसे  दयनीय स्तिथी में वे बच्चे हैं जिनके माँ-बाप नहीं हैं, जिनका न तो खुद का परिवार हैं, न तो  रहने के लिए घर। कुछ लोग इनकी खरीद-फरोख्त करते हैं, चौराहों पर भीख मंगवाते हैं और बदले में एक समय का खाना देते हैं। बड़े शहरों में इस समस्या ने एक भयानक रूप धारण कर लिया हैं, जहां भीख के पैसे न देने पर बच्चों का शारीरिक शोषण किया जाता हैं...उन्के साथ मारपीट कर गहरी चोट  पहुचाई जाती हैं। पिछले दिनों एक ऐसी ही घटना मध्य प्रदेश के इंदौर में सामने आई हैं।

जिस तरह का घिनौना समाज हमारे आसपास पनप रहा हैं...उसमे संत्रास हैं, शोषण हैं और गिरते सामाजिक-मानवीय मूल्य हैं। सरकारें आती हैं, नये नीयम बनाती हैं...लेकिन स्तिथी जस-कि-तस हैं। सर्व शिक्षा  अभियान, माध्यान्ह भोजन जैसी कोशिशे, हालातों के सामने बौनी नज़र आती  हैं। गरीबी, भुखमरी,बाल श्रम, बेरोजगारी, महंगाई जैसी समस्याएँ एक दुसरे से जुडी हुई हैं, एक को ख़तम करने के लिए दूसरे का हल ढूंढना ज़रूरी हैं। समस्या हमारी, हल भी हमें ही खोजने होंगे ...

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