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Thursday, May 9, 2013

कामयाबी, तेरा शहर...

जाने किन गलियों से चला था मैं
और, किस शहर को आ गया
मंजिले पाने की धुन में
रास्तो में उलझ गया
उलझनों से फिर रस्ते बुनकर
देखो, किस मुकाम पर पहुँच गया!

ऊंचाइयों पर रहना सीख गया
महफ़िलो में, कभी अकेले में
विदेशी हया पीना सीख गया
'कामयाबी' तेरे शहर आकर
देख, मैं क्या-क्या सीख गया !

आज ज़िन्दगी आलिशान हैं
बंगले में बैठा हूँ
बाहर बागीचा-बाघबान हैं
'कामियाबी' तेरे शहर में
देख, आज मेरी क्या शान हैं !

झूठी मुस्काने लिए फिरता हूँ
कभी अश्कों को दबाये रहता हूँ
सच्चे-झूठे अफ़साने लिख-लिख कर
अपनी शोहरत बढ़ाता हूँ
दोस्त-दोस्त में फरक समझता हूँ
'कामयाबी' तेरे शहर में
देख, मैं कैसे-कैसे दिन बिताता हूँ

'कामयाबी' तेरे शहर में,
वक़्त हैं कही खो गया
वक़्त के साथ दौड़ लगाते
मैं भी कही गुम गया
वक़्त का रोना रोते-रोते
इक अरसा तक बीत गया! 

रोज़ आईने पर इतराता था जो ...
'कामयाबी' तेरे शहर में आकर,
वो अक्स मुझसे टूट गया !

तुम अपनी शक्ल की बात करते हो
हुज़ूर,
ये शख्स तो अपनी सूरत तक हैं भूल गया
'कामयाबी' तेरे शहर आकर
देख, मैं कितना कुछ भूल गया  !!!