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Tuesday, October 29, 2013

चेहरा

किसी घूँघट के पीछे कोई चेहरा
किन्हीं आँखों पर काजल का पहरा
ट्रेन की खिड़की पर हवा खाता कोई चेहरा 
अपने दाम को तरसता हर चेहरा!

किसी पर छपी गहरी वक़्त कि लकीरें
किसी पर चमकती शौंख जवानी
हर चेहरा कुछ कहता हैं
अलग-अलग भाव में बिकता हैं !

हर चेहरे के पीछे छुपा कोई और चेहरा
हर चेहरे पर सजा... जज़बातों का सहरा
चेहरो कि तो बड़ी भीड़ हैं यहाँ
.... अपना समझने वालो का बड़ा मोल हैं यहाँ !

कोई चौराहे पर सजता है… रातों में बिकता हैं
कोई ठेठ बना रहता हैं
इस ज़िन्दगी के बाज़ार में
हर चेहरा अपनी कीमत ..  अपनी पहचान आईने में तकता हैं !!!!

Thursday, May 23, 2013

भई चाँद तू हैं कहाँ ?

भई चाँद तू हैं कहाँ ?

ना  बादलों के पर्दों में हैं
ना सितारों की गर्द में हैं
ना दूर फलक पर हैं

भई चाँद तू हैं कहाँ ?

कितनी बातें हैं सुननी 
कितनी बातें हैं सुनानी
मेरी-तेरी ज़िन्दगी की
दिन-दिन बदलती कहानी

भई चाँद तू हैं कहाँ ?

अब तो काली घटाओं
संग खेलना बंद कर
तेरे आसमां  और
      मेरे सपनो पर बिखरे सैकड़ो सितारों की
मुझसे जी-भर के बात कर

भई चाँद तू हैं कहाँ ?

ना नजारों में हैं
ना मज़ारो पर हैं 
ना मस्जिदों और दरबारों में हैं
खुदा भी तुझको ढूंढ़ रहा हैं

भई चाँद तू हैं कहाँ ?

याद हैं ...
जब गर्म रातों में छत पर,
नींद के इंतज़ार में नर्म बिछौने पर
मुझसे बातें करता था ..
तारों की झिलमिल से, कभी बादलों की महफ़िल से
और कभी रात के सन्नाटों से भागता-फिरता था
इतनी  मशक्कत के बावजूद
मुझसे मिलने आता था !

भई चाँद तू हैं कहाँ ?

इस  बम्बई के आसमां पर
बता मैं तुझको ढूंढ़ु  कहाँ ?
इन इमारतों की ऊँचाईयों में,
बता मैं तुझको ढूंढ़ु  कहाँ ?
मचलती-ठहरती लहरों में,
बता मैं तुझको ढूंढ़ु  कहाँ ?

भई चाँद तू हैं कहाँ ? 
बता मैं तुझको ढूंढ़ु  कहाँ ?

Thursday, May 16, 2013

आदत प्याले की लग जाती
तो हालत बुरी हो जाती!

उससे से तो बच गया
तुझसे बचने को कहाँ भागु ?

प्याले तो छूट गए, तेरी आदत लगा गए
मैं अपनी आदतों से दूर कहाँ भागु?

दुनिया तुझमे सिमटी हैं अपनी
अपनी दुनिया से दूर कहाँ भागु ?

अब किसी रंगीन पानी की क्या ज़रूरत
तेरी आदते काफी हैं
तू ही मेरी रंगीनियत और हया हैं
ये रंगीनियत और हया छोड़ मैं कहाँ भागु ?
बता, मैं तुझसे दूर कहाँ भागु ?

Monday, May 13, 2013

माँ ...

तेरे आँचल में
ना धूप लगती थी, ना बरिशे !
जब से बाहर आया हूँ
छाँव ढूंढ़ रहा हूँ !


अंधेरो के सायो से
अब डर नहीं लगता

आसुओ को सुखाने में
रात बीत जाती हैं

साए मचलते रहते हैं
और आँख लग जाती हैं ! 

Thursday, May 9, 2013

कामयाबी, तेरा शहर...

जाने किन गलियों से चला था मैं
और, किस शहर को आ गया
मंजिले पाने की धुन में
रास्तो में उलझ गया
उलझनों से फिर रस्ते बुनकर
देखो, किस मुकाम पर पहुँच गया!

ऊंचाइयों पर रहना सीख गया
महफ़िलो में, कभी अकेले में
विदेशी हया पीना सीख गया
'कामयाबी' तेरे शहर आकर
देख, मैं क्या-क्या सीख गया !

आज ज़िन्दगी आलिशान हैं
बंगले में बैठा हूँ
बाहर बागीचा-बाघबान हैं
'कामियाबी' तेरे शहर में
देख, आज मेरी क्या शान हैं !

झूठी मुस्काने लिए फिरता हूँ
कभी अश्कों को दबाये रहता हूँ
सच्चे-झूठे अफ़साने लिख-लिख कर
अपनी शोहरत बढ़ाता हूँ
दोस्त-दोस्त में फरक समझता हूँ
'कामयाबी' तेरे शहर में
देख, मैं कैसे-कैसे दिन बिताता हूँ

'कामयाबी' तेरे शहर में,
वक़्त हैं कही खो गया
वक़्त के साथ दौड़ लगाते
मैं भी कही गुम गया
वक़्त का रोना रोते-रोते
इक अरसा तक बीत गया! 

रोज़ आईने पर इतराता था जो ...
'कामयाबी' तेरे शहर में आकर,
वो अक्स मुझसे टूट गया !

तुम अपनी शक्ल की बात करते हो
हुज़ूर,
ये शख्स तो अपनी सूरत तक हैं भूल गया
'कामयाबी' तेरे शहर आकर
देख, मैं कितना कुछ भूल गया  !!!

Friday, May 3, 2013

100 years

100 years of a magnificent magic on screen
100 years of rolling cameras
100 years of glittering lights
100 years of action

100 years of dreaming minds
100 years of creativity
100 years of struggle 
100 years of glamor

100 years of romance
100 years of emotions
100 years of relations
100 years of change

100 years of melody of playback
100 years of lurking aspirations
100 years of celluloid
100 years of glory
100 years of path breaking cinema
100 years of Indian Cinema...

May 3rd 2013 is marking the completion of 100 years of Indian Cinema, the biggest Industry throughout the world. This Industry is no doubt a source of inspiration and dreaming big for thousands around the Indian sub-continent.
Saluting the spirit of Indian Cinema...  the spirit of everyone who is a part of this ever growing Industry.




Wednesday, April 24, 2013

आज के रावण

बरसो से रावण के पुतले को
पटाखों से फोड़ते आये हैं 
रावण का क्रोध, पुतले पर उतार
सदियों से दशहरा मनाते आये हैं !

तब अयोध्या की साख की
आज कोई और कहानी हैं 

गुस्से की आग में
पुतले फूकने की
प्रथा बड़ी पुरानी हैं !

माँ-बहन का नाम दिया
जिस नारी को
देवी की मूरत में पूजा किये
जिस नारी को 

अपवित्र कर दिया आँचल
उस नारी का
आबरू-बेआबरू कर सर झुकाया
उस नारी का 

अरमानो को उसके झकझोड़ दिया
ऐ मर्द ,
ममता भरा सीना उसका
जब तूने नोच दिया !

कलियुग की बिसाख पर
रची जा रही
रोज़ शर्म की नयी कहानी हैं
बेशर्मो की मिसाल,
एक हमारी राजधानी हैं 

भभकती आग में
रोष जताने की,
चित-चित जलती चिंगारियों से,
उद्घोष अपना सुनाने की
अत्याचारियों का पुतला जलाने की
प्रथा बड़ी पुरानी हैं !
कलियुग की बिसाख पर
रची जा रही
रोज़ शर्म की नयी कहानी हैं!

आज वक़्त हैं,
मशालो में अपनी आग भर लो
मन में लावा-लहू भर लो
हर सीता के प्रतिशोध की
आज बारी आई हैं !
मर्दों के पुतले ख़ाक करने की
जीते-जागते रावणों का दशहरा मानाने की
आज बारी आई हैं....


Monday, April 15, 2013

इक हसीं इत्तेफ़ाक सी
वो पहली मुलाकात
ज़ेहन में अब भी ताज़ा हैं
तेरे लब से निकली हर बात !

इक हसीं इत्तेफ़ाक सी
वो पहली मुलाकात
ज़ेहन में तरो ताज़ा हैं
अपनी तकरारे, बेवक़्त बेबात !

इक हसीं इत्तेफ़ाक सी
वो पहली मुलाकात
ज़ेहन में आज भी चुभता हैं
तेरा पलटना और वापस न आना!

तेरी आमद के इंतज़ार में
अश्क कितने बहा दिए
तेरे अफ़साने लिख-लिख कर
अदीबो ने,
लफ्ज़ कितने गंवा दिए!

बावजूद इसके...
महज़ अशरार न कहना इन्हें
मेरे लफ्ज़ जो गुमसुम हो जाएंगे
जिस कलम से उतर रहे हैं,
उसी स्याही में सूख जाएंगे !

जिन जज्बातों को उकेरने बैठी हूँ ,
वो मुझसे खफा हो जाएंगे !
हबीब बन मेरे साथ थे जो ,
वही, मेरे रकीब बन जाएंगे !

Saturday, April 6, 2013

सवाल-जवाब

हर दिन नए सवाल उमड़-उमड़ कर आ रहे हैं
ए ज़िन्दगी, हैं कोई जवाब तुम्हारे पास?

सवालों पर कुछ रहम तो खाओ
बेचारे, कतारों में खड़े पसीना बहा रहे हैं
और तुम, बेरहमो की तरह भाग रही हो?

अरे सुनो, ज़रा रुको, कुछ पल ठहर के देखो
महसूस तो कर के देखो खुद को
एहसासों की पनाह में चंद सांसे भर के देखो

जाने किन उलझनों में गुंथी पड़ी हो
किसी दिन, सुलझनो का स्वाद भी चख के देखो

जवाबो की कतारे अपने आप लग जाएँगी
सवालो को फिर चैन मिलेगा ..
और शायद मुझको भी ........

Sunday, March 31, 2013

अरमान

हजारो अरमान मन में घर बसा कर बैठे हैं

अपने को हकीकत में ढाल दे,
इसी इंतज़ार में ये तशरीफ़ सजा कर बैठे हैं

चुप्पी बन, जुबां पर अटके लफ्जों की मानिंद
ये मन की देहलीज़ पर डटके बैठे हैं

कितने हकीकत बन पाए
वो मन-ही-मन हिसाब कर लेते हैं

घर की बात घर में रखके

मुझे बहलाने को हर दिन एक नया अरमान
फिर बुला लेते है…