वो अकेला ही चला आया था
बड़े-से इस नगर में
भीड़ भरे इस शहर में!
छोड़ अपने गाँव को
सौंधी सी माटी को!
छोड़ पीपल की छाँव को
चूल्हे की उस रोटी को!
लेकर अरमानो की एक पोटली
लपेटे सपनो की एक चादर
आ गया वो अनसुनी कर,
बूढ़े पिता की आखरी पुकार!
सोचा था कुछ काम करेगा
बच्चो को पढ़ायेगा!
एक छोटा संसार हैं उसका
जिसे वह सजाएगा!
गाँव में बहुत सुना ,शहर के बारे में
बड़े दिलवाले, बड़े लोगो के बारे में!
यहाँ चकाचौंध हैं,चमक हैं
बड़े घरवाले, बड़े साहब हैं!
काम की तलाश में भटकते
बीत गए जाने कितने दिन
काम मिला नहीं ,मिली फटकार
माँ का दुलार छोड़ आया था,
यहाँ मिली दुत्कार!
धुप में जलते-जलते
बीत गए जाने कितने दिन
सिर पर छाँव न मिली कही!
शहर अब भी रोशन हैं
जगमगा रहा हैं !
कामयाबी और पैसे के पीछे
सारा शहर अब भी भाग रहा हैं !
अँधेरा था उसके सामने
अकेला बैठा था वह,गली के एक कोने में
पेट में एक दाना था नहीं
दो बूँद पानी को तरसता रहा था हर कही!
सूनेपन से घिरा तलाश रहा था
अपने बिखरे सामान में-
"वो सपने, वो खुशियाँ, माँ का आँचल"
सुबकता रहा अकेले में पड़े हुए
गूँज रही कानो में
बूढ़े पिता की "आखरी पुकार"!
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