हजारो अरमान मन में घर बसा कर बैठे हैं
अपने को हकीकत में ढाल दे,
इसी इंतज़ार में ये तशरीफ़ सजा कर बैठे हैं
चुप्पी बन, जुबां पर अटके लफ्जों की मानिंद
ये मन की देहलीज़ पर डटके बैठे हैं
कितने हकीकत बन पाए
वो मन-ही-मन हिसाब कर लेते हैं
घर की बात घर में रखके
मुझे बहलाने को हर दिन एक नया अरमान
फिर बुला लेते है…
अपने को हकीकत में ढाल दे,
इसी इंतज़ार में ये तशरीफ़ सजा कर बैठे हैं
चुप्पी बन, जुबां पर अटके लफ्जों की मानिंद
ये मन की देहलीज़ पर डटके बैठे हैं
कितने हकीकत बन पाए
वो मन-ही-मन हिसाब कर लेते हैं
घर की बात घर में रखके
मुझे बहलाने को हर दिन एक नया अरमान
फिर बुला लेते है…